न्यायिक सक्रियता का विकासात्मक अध्ययन
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न्यायिक सक्रियता##common.commaListSeparator## न्यायपालिका##common.commaListSeparator## न्यायिक व्यवस्थासार
सभी प्रकार के समाज में न्याय व्यवस्था विद्यमान है। न्याय के अभाव में किसी सभ्यसमाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्याय देना एवं न्याय पाना कोई नई बात नहीं है, क्योंकि न्याय का तो प्रादुर्भाव उसी समय हुआ होगा जब कभी दो व्यक्तियों के बीच विवाद हुआ होगा और किसी तीसरे व्यक्ति ने विवाद पर निर्णय दिया होगा।
1970 के पहले न्यायपालिका नए और बिना आजमाए हुए विचारों और विधियों को अपनाने के बजाय पुराने और आजमाएं हुए विचारों कानूनों को कायम रखने का समर्थन करती थी| अर्थात न्यायपालिका विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का समर्थन करती थी, लेकिन बाद में न्यायपालिका के सम्मुख कुछ ऐसी सामाजिक, मानवीय घटनाएं घटी जिसने न्यायपालिका को यह महसूस कराया की यदि हम न्यायिक व्यवस्था को जड़ तथा स्थाई बना देंगे तो हम समाज की प्रगति और राष्ट्र के लोगों के विकास को रोक देंगे| अतः न्यायपालिका ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का पालन करते हुए विधि की उचित प्रक्रिया का प्रयोग आरंभ कर दिया और लोक हितकारी याचिकाओं को मान्यता देकर न्यायिक सक्रियता का मार्ग प्रशस्त किया।
न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायाधीशों का मूल उद्देश्य न्यायिक प्रणाली के परंपरागत क्षेत्र एवं पुरातन विधिक प्रणालियों की सीमा से बाहर आकर न्यायिक क्षेत्र को विस्तृत करना तथा नई समस्याओं के समाधान के अनुरूप नई मान्यताओं को स्थापित करना है| इन न्यायाधीशों ने न्यायिक प्रक्रिया की पुरातन अवधारणाओं का परित्याग कर समाज की वास्तविक समस्याओं के अध्ययन को आवश्यक माना।
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